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विमर्श

नेताजी के प्रभाव में है भारत छोड़ो आंदोलन

रजनीश कुमार शुक्ल


जब देश स्‍वतंत्रता का अमृत महोत्‍सव मना रहा है ऐसे समय में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की चर्चा स्‍वाभाविक है। एक ऐसा आंदोलन जिसमें नेता जेलों में थे, जनता आज़ादी की लडाई लड़ रही थी। जनता अंग्रेजो को भारत से भगाने के लिए उद्यत होकर सातारा से बलिया तक और हजारीबाग से लाहौर तक सर्वत्र सीधी और निर्णायक लड़ाई लड़ रही थी। ऐसे समय का मूल्‍यांकन आज जब इस घटना के 80 वर्ष होने जा रहे हैं, होना आवश्‍यक प्रतीत होता है। 1942 का आंदोलन गांधी के जीवन का सबसे निर्णायक और बड़ा आंदोलन था। कांग्रेस कार्यसमिति ने 14 जुलाई 1942 के अपने वर्धा प्रस्‍ताव में इस आंदोलन की पूरी जिम्‍मेदारी, नेतृत्‍व, नियंत्रण और आगे की दिशा गांधी के हवाले कर दी थी। इस प्रस्‍ताव और उसके बाद की घटनाओं पर इतिहास में बहुत चर्चा हुई है। पर 1942 का यह प्रस्‍ताव कांग्रेस कार्य समिति में किन परिस्थितियों में आया था इस पर नहीं के बराबर चर्चा हुई है। अभी देश ने आज़ाद हिंद फौज़ के 75 वर्ष धूमधाम से मनाये हैं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के 75 वर्ष पर भी व्‍यापक चर्चा हुई थी। पर 1942 के निर्णायक आंदोलन को इस मुकाम तक ले आने में सुभाष चंद्र बोस का प्रभाव अभी तक मूल्‍यांकित नहीं हुआ है। क्‍योंकि 1942 के आंदोलन की जो धार है कांग्रेस में वह सुभाष बाबू की आवाज़ है। करो या मरो, रास्‍ता चाहे जो हो आज़ादी चाहिए। डोमेनियन स्‍टेट और उसके बाद स्‍वतंत्रता की क्रमश: विकसित होने वाली अवधारणा भारत को स्वीकार नहीं है। ये गांधी और कांग्रेस की अपेक्षा सुभाष चंद्र बोस के विचारों के अधिक नजदीक है। 9 जुलाई 1942 को गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति के लिए जो मसौदा प्रस्‍तुत किया था वह भारत की आज़ादी का मसौदा सुभाष-गांधी प्रतिरोध की छाया में है। क्‍योंकि इस मसौदे में गांधी ने साफ कहा है कि ''भारत की स्‍वतंत्रता इस तरह न केवल भारत के हित के लिए बल्कि विश्‍व की सुरक्षा के लिए और नाजीवाद, फासीवाद, सैन्‍यवाद, साम्राज्‍यवाद और जिस किसी वाद का जापान प्रतिनिधित्‍व करता है उसकी समाप्ति के लिए आवश्‍यक है''। 9 जुलाई को गांधी के द्वारा कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्‍ताव का मसौदा तैयार करते समय जापान का उल्‍लेख केवल इसलिए नहीं है कि जापानी सेना तेजी से भारत की ओर बढ़ रहीं थी। जून के महीने में (संभवत: 22 जून) इंडियन नेशनल लीग का जापान में अधिवेशन सुभाष बाबू के नेतृत्‍व में सम्‍पन्‍न हुआ था और आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन प्रारंभ हो गया था। आज़ाद हिंद सरकार को दुनिया के कुछ राष्‍ट्र मान्‍यता दें इसकी तैयारियां प्रारंभ हो गयी थी। ऐसे में कांग्रेस के द्वारा जापान को भारत का विरोधी और शत्रु प्रतिपादित किया जाना इस बात की ओर संकेतित जरूर करता है कि कांग्रेस आज़ाद भारत की सत्ता को अपने अख्तियार में रखना चाहती थी। गांधी ने 9 जुलाई के अपने मसौदे को जवाहरलाल नेहरू को भेजा था और नेहरू ने इसमें कुछ संशोधन किये थे। क्रिप्‍स मिशन की असफलता और भारत के सामान्‍य जन में ब्रितानी सरकार के विरुद्ध उभर रही दुर्भावना तथा जापानी फौज की सफलता पर भारतीयों में संतोष के भाव की वृद्धि से जुड़ी पंक्तियां पंडित नेहरू ने जोड़ी थी। 1942 में अमेरिकी राष्‍ट्रपति रुजवेल्‍ट के प्रतिनिधि कर्नल जॉन्‍सन ने भारत को मित्र राष्‍ट्र के साथ खड़ा होना चाहिए इसकी अपील करते हुए कहा था 'हे सदाशय भारतीयों आप हम पर उसी प्रकार विश्‍वास रखिए जैसे कि हम आप पर रखते हैं'। ये वहीं अमेरिका है जिसने प्रथम महायुद्ध के समय भारत की ओर से ऐसे किसी अनुरोध को युद्ध अपराध घोषित किया था और ऐनी बेसेंट और राष्‍ट्रपति विल्‍सन के बीच 1918 में किये गये प्रसाय असफल हुए थे। उपर्युक्‍त सभी बातों से एक बात निकलकर आती है कि युद्ध में जापान की लगातार बढ़त ने भारत की आज़ादी को अवश्‍यंभावी बना दिया था। आज़ादी के साधनों को लेकर नेताजी और महात्‍माजी के बीच जो विरोध था वह भी भारत के आम जन की दृष्टि में बेमानी हो गया था। 1942 का आंदोलन हिंसा और अहिंसा इसके विवाद से परे केवल पूरी आज़ादी का आंदोलन था। ये बात दीगर है कि वायसराय लार्ड लिनलिथगो को पत्र लिखकर गांधी ने अपने को इस आंदोलन से अलग कर लिया था। किंतु समूची कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं समक्ष करो या मरो का प्रश्‍न खड़ा था। साथ ही सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्‍व में अंडमान निकोबार में आज़ाद हिंद की स्‍थापना ने एक ऐसा संकट खड़ा किया था जिसमें चौरी चौरा में हिंसक संघर्ष के होने के बाद जिस तरह आंदोलन वापस लिया गया था, ऐसा यहां संभव नहीं था। मुंबई कांग्रेस महासभा की बैठक के बाद 9 अगस्‍त की सुबह से आंदोलन कांग्रेस की पकड़ से बाहर हो गया था। यह जनता का आंदोलन हो गया था जिसने अपने नये नेता बना लिये थे। अरूणा आसफ अली, जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राम मनोहर लोहिया से लेकर चित्तू पांडे तक ऐसे नेता उभर कर के सामने आये जिन्‍हें डोमेनियन स्‍टेट की अवधारणा पर विश्‍वास नहीं था। जिन्‍हें अंग्रेजों के जाने के बाद भारत का क्‍या होगा इसकी चिंता अंग्रेज करें यह गवारा नहीं था। और इन सबके पीछे कोई उद्दीपक ताकत थी तो वह थी आज़ाद हिंद सरकार और आज़ाद हिंद फौज तथा सुभाष चंद्र बोस का आह्रवान कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्‍हें आज़ादी दूंगा। ये सच है कि 1939 से 1943 तक भारत और दुनिया में भारत को लेकर जो कुछ घटित हो रहा था उस पर सुभाष चंद्र बोस का बड़ा प्रभाव रहा। भले ही साम्राज्‍यवाद, पूंजीवाद, सैन्‍यवाद का प्रतिनिधित्‍व करने वाली उस काल की साम्‍यवादी शक्तियां नेताजी को तोजो का कुत्ता जैसी गालियों से नवाज़ रही थीं पर 9 जुलाई से लेकर 9 अगस्‍त 1942 तक गांधी, नेहरू और कांग्रेस के वैचारिक विमर्श में जिस प्रकार से ब्रितानियों से बड़ा शत्रु जापान को साबित करने की कोशिश की जा रही थी, वह सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव को दर्शाती है क्योंकि इसी समय सुभाष बाबू जापान में इंदीयन नैशनल लीग आकाश हिंद फ़ौज के गठन के प्रयास कर रहे हैं जिसका भारत के साधारण जन पर गहरा प्रभाव है और उसके प्रभाव में 1942 क्रमिक आज़ादी की अवधारणा का भारतीयों के द्वारा नकार तथा संपूर्ण आज़ादी की हुंकार भरी गयी।


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